हड़प्पा संस्कृति या सिन्धु घाटी की सभ्यता:
उदभव :
सन् 1921 में राय बहादुर दयाराम साहनी द्वारा हड़प्पा स्थल (प० पंजाब, पाकिस्तान) की खोज से एक नयी सभ्यता के बारे में जानकारी हुई, जिसे पुरातत्ववेताओं ने हड़प्पा संस्कृति या सिंधु घाटी की सभ्यता नाम दिया। इस सभ्यता को सैंधव सभ्यता या प्रथम नगरीय सभ्यता अथवा सिंधु सभ्यता के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। इस सभ्यता की लिपि को पढ़ने में अभी तक पूरी तरह किसी को भी सफलता नहीं मिल पायी है, हालाँकि कुछ समय पूर्व सेना के शिक्षा विभाग (केरल) के एक शिक्षक ने सिंधु घाटी में प्राप्त लिपि को पढ़ने का दावा किया था। पिछले कई वर्षों से इस संबंध में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शोध का सिलसिला जारी है।
विस्तार :
सिंधु घाटी सभ्यता का फैलाव पंजाब, सिंधु, बलूचिस्तान, गुजरात, राजस्थान और पश्चिम उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्राें में था। परंतु खुदाईयों से इसके क्षेत्र वर्तमान से बढ़ भी सकते हैं। उत्तर में जम्मू के मांडा जिला से दक्षिण में नर्मदा नदी का मुहाना भगतराव तक और पश्चिम में बलूचिस्तान के मकरान तट से पूरब में मेरठ जिला के आलमगीरपुर तक इसका फैलाव था। यह सम्पूर्ण क्षेत्र त्रिभुजाकार है, जिसका क्षेत्रफल 12,99,600 वर्ग कि०मी० है। अब तक हुई खुदाई के अनुसार उत्तर में पंजाब स्थित रोपड़ महत्वपूर्ण है तो दक्षिण में नर्मदा एवं ताप्ति के मध्य स्थित भगतराव। सर्वाधिक उत्तरी क्षेत्र जम्मू कश्मीर स्थित मांडा है, जबकि सर्वाधिक दक्षिणी छोर दैमाबाद है जो अहमदनगर जिला में स्थित है।
उदभव :
सन् 1921 में राय बहादुर दयाराम साहनी द्वारा हड़प्पा स्थल (प० पंजाब, पाकिस्तान) की खोज से एक नयी सभ्यता के बारे में जानकारी हुई, जिसे पुरातत्ववेताओं ने हड़प्पा संस्कृति या सिंधु घाटी की सभ्यता नाम दिया। इस सभ्यता को सैंधव सभ्यता या प्रथम नगरीय सभ्यता अथवा सिंधु सभ्यता के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। इस सभ्यता की लिपि को पढ़ने में अभी तक पूरी तरह किसी को भी सफलता नहीं मिल पायी है, हालाँकि कुछ समय पूर्व सेना के शिक्षा विभाग (केरल) के एक शिक्षक ने सिंधु घाटी में प्राप्त लिपि को पढ़ने का दावा किया था। पिछले कई वर्षों से इस संबंध में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शोध का सिलसिला जारी है।
विस्तार :
सिंधु घाटी सभ्यता का फैलाव पंजाब, सिंधु, बलूचिस्तान, गुजरात, राजस्थान और पश्चिम उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्राें में था। परंतु खुदाईयों से इसके क्षेत्र वर्तमान से बढ़ भी सकते हैं। उत्तर में जम्मू के मांडा जिला से दक्षिण में नर्मदा नदी का मुहाना भगतराव तक और पश्चिम में बलूचिस्तान के मकरान तट से पूरब में मेरठ जिला के आलमगीरपुर तक इसका फैलाव था। यह सम्पूर्ण क्षेत्र त्रिभुजाकार है, जिसका क्षेत्रफल 12,99,600 वर्ग कि०मी० है। अब तक हुई खुदाई के अनुसार उत्तर में पंजाब स्थित रोपड़ महत्वपूर्ण है तो दक्षिण में नर्मदा एवं ताप्ति के मध्य स्थित भगतराव। सर्वाधिक उत्तरी क्षेत्र जम्मू कश्मीर स्थित मांडा है, जबकि सर्वाधिक दक्षिणी छोर दैमाबाद है जो अहमदनगर जिला में स्थित है।
सिंधु सभ्यता के प्रमुख स्थल
नदी/सागर तट खुदाई वर्ष जगह का नाम उत्खननकर्ता
रावी नदी 1921 हड़प्पा (मांटगुमरी पंजाब-पाकिस्तान) दयाराम साहनी
सिन्धु नदी 1922 मोहनजोदड़ो (सिंध-पाकिस्तान) राखालदास
1929 आमरी एन० जी० मजुमदार
सिन्धु नदी 1931 चन्हुदड़ो एन० जी० मजुमदार
दाश्क नदी 1931 सुतकागेंडर (बलूचिस्तान) सर ओरल स्टीन
हिन्डन नदी 1952-55 आलमगीरपुर (मेरठ-उत्तर प्रदेश) यज्ञदत्त शर्मा
सतलज नदी 1952-82 रोपड़ (पंजाब-सतलज तट) यज्ञदत्त शर्मा
माबर नदी 1953 रंगपुर (गुजरात-मादर नदी तट) माधोस्वरूप वत्स एवं रंगनाथ राव
घग्घर नदी 1953 कालीबंगा (हनुमानगढ़-राजस्थान) डॅा० ए० घोष
सिन्धु नदी 1955-57 कोटदिजी (सिंध-पाकिस्तान) एफ० ए० खांन
भोगवानदी 1954-63 लोथल (अहमदाबाद-गुजरात) एस० आर० राव, वत्स
1956-57 प्रभाषपाटन ———
1963-64 देसलपुर ———
1972-75 सुरकोतड़ा (बलूचिस्तान) जे० पी० जोशी
1973 बनवाली (हिसार-हरियाणा) आर० एस० विष्ट
अरब सागर 1979 बालाकोट जार्ज एफ० डेल्स
1963-68 धौलावीरा (गुजरात) जे० पी० जोशी
1990-91 डॅा० आर० एस० विष्ट
नदी/सागर तट खुदाई वर्ष जगह का नाम उत्खननकर्ता
रावी नदी 1921 हड़प्पा (मांटगुमरी पंजाब-पाकिस्तान) दयाराम साहनी
सिन्धु नदी 1922 मोहनजोदड़ो (सिंध-पाकिस्तान) राखालदास
1929 आमरी एन० जी० मजुमदार
सिन्धु नदी 1931 चन्हुदड़ो एन० जी० मजुमदार
दाश्क नदी 1931 सुतकागेंडर (बलूचिस्तान) सर ओरल स्टीन
हिन्डन नदी 1952-55 आलमगीरपुर (मेरठ-उत्तर प्रदेश) यज्ञदत्त शर्मा
सतलज नदी 1952-82 रोपड़ (पंजाब-सतलज तट) यज्ञदत्त शर्मा
माबर नदी 1953 रंगपुर (गुजरात-मादर नदी तट) माधोस्वरूप वत्स एवं रंगनाथ राव
घग्घर नदी 1953 कालीबंगा (हनुमानगढ़-राजस्थान) डॅा० ए० घोष
सिन्धु नदी 1955-57 कोटदिजी (सिंध-पाकिस्तान) एफ० ए० खांन
भोगवानदी 1954-63 लोथल (अहमदाबाद-गुजरात) एस० आर० राव, वत्स
1956-57 प्रभाषपाटन ———
1963-64 देसलपुर ———
1972-75 सुरकोतड़ा (बलूचिस्तान) जे० पी० जोशी
1973 बनवाली (हिसार-हरियाणा) आर० एस० विष्ट
अरब सागर 1979 बालाकोट जार्ज एफ० डेल्स
1963-68 धौलावीरा (गुजरात) जे० पी० जोशी
1990-91 डॅा० आर० एस० विष्ट
दाशराज युद्ध
पाँच आर्य पाँच अनार्य
अनु अनिल
द्र्हूा (परुष्णी नदी के किनारे थे) पक्थ
युद्ध भलानस
पुरु शिव
तुर्वश विषाग्नि
ऋषि और मंडल
गृत्समद् द्वितीय मंडल
विश्वामित्र तृतीय मंडल
वामदेव चतुर्थ मंडल
वशिष्ठ पंचम मंडल
भारद्वाज षष्ठ मंडल
अत्रि सप्तम मंडल
वैदिक सभ्यता :
परिचय-
हड़प्पाकालीन सभ्यता एवं संस्कृति के बाद भारत की घरती पर एक अर्द्धभ्रमणशील एवं पशुचारी प्रवृति के आर्यों का प्रादुभाव हुआ। इन आर्यों की सभ्यता एवं संस्कृति की विस्तृत जानकारी हमें वेदों से प्राप्त होती है। इसलिए इन आर्यों की सभ्यता के काल को वैदिक काल/वैदिक युग भी कहते हैं। वैदिक युग को दो भागों में बाँटा गया है-पहला, ऋग्वैदिक काल जो 1500 ई.पू० से 1000 ई. पू० तक माना जाता है और दूसरा, उत्तर वैदिक काल जो 1000 ई० पू० से 600 ई० पू० तक माना जाता है। इस प्रकार 1500 ई० पू० से 600 ई० पू० का काल वैदिक युग के नाम से जाना जाता है। ‘आर्य’ शब्द का अर्थ श्रेष्ठ, उदात्त, अभिजात्य, कुलीन, उत्कृष्ट एवं स्वतंत्र होता है। ये लोग संस्कृत भाषा का प्रयोग करते थे और अनेक देवी-देवताओं की उपासना करते थे। भारत और यूरोप में आर्यों को आनुवंशिक दृष्टी से एक जाति का माना जाता है और अनेक सांस्कृतिक उपलब्धियों का श्रेय आर्यों को दिया जाता है।
तिथि-
आर्य भारत में लगभग 1500 ई० पू० में आए। हालांकि एक से अधिक बार में आर्यों के कई समूह भारत आए। अत: इनके आगमन का कोई निश्चित काल निर्धारण करना मुश्किल है। वैसे वैदिक सभ्यता का काल 1500-500 ईसा पूर्व माना जाता है।
सोलह संस्कार
जन्म से मृत्यु तक व्यक्ति के 16 महत्वपूर्ण संस्कार
गर्भाधान संतान की प्राप्ति के लिए
पुंसवन पुत्र प्राप्ति के लिए
सिमन्तोन्नयन गर्भ में संतान की रक्षा के लिए
जात कर्म बच्चे के उत्पन्न होने पर किया जाने वाला संस्कार
नामकरण नाम रखा जाने वाला संस्कार
निष्क्रमण पहली बार घर से निकलना
अन्नप्रासन नवजात शिशु को भोजन के रूप में अन्न देने का प्रारम्भ
चूड़ाकर्म मुण्डन संस्कार
कर्णवेधन कान में छेद करना
विद्धारंभ शिक्षा प्रारंभ
उपनयन यज्ञोपवीत धारण
वेदारंभ वेद का अध्ययन प्रारंभ
केशान्त ——–
समावर्तन शिक्षा की समाप्ति पर
विवाह संस्कार विवाह
अन्त्येष्टि दाह-संस्कार
पंच महायज्ञ
यज्ञ उद्देश्य
भूतयज्ञ जीवधारियों का पालन
अतिथि यज्ञ या नृयज्ञ अतिथियों की सेवा
ब्रहा् यज्ञ या ऋषि यज्ञ स्वाध्याय के लिए
देव यज्ञ अग्नि में हवन के द्वारा देवता को प्रसन्न करने के लिए
पितृ यज्ञ पितरों का तर्पण या संतानोत्पत्ति के निमित्त
आर्यों के आगमन से संबंधित विचार-
आर्य मूलत: कहां के रहने वाले थे यह आज भी विविदास्पद विषय है इस संबंध में प्रमुख विद्वानों द्वारा बताये गये क्षेत्र निम्नलिखित हैं-
आर्य आए विचार/मान्यता है
यूरोप से विलियम जोंस का
यूरोप स्थित हंगरी के मैदान से डॅा० पी० गाइल्स का
जर्मनी के आसपास से पंके का
पश्चिमी बाल्टिक समुद्री तट से मच का
दक्षिणी रूस से पोकानों एवं नेहरिंग का
आर्कटिक प्रदेश से बाल गंगाधर तिलक का
मध्य एशिया से प्रो० मैक्समूलर का
आर्य भारतीय थे सम्पूर्णानंद व अविनाश चन्द्र का
ब्रहा्र्षि देश से डॅा० गंगाधर झा का
कश्मीर एवं हिमालय प्रदेश से एल० डी० कल्ला का
तिब्बत से स्वामी दयानंद का
किरगीज स्टेप्स के मैदान से ब्रडस्टीन का
पामीर का पठार से मेयर का
बैक्त्रिया से जे० डी० रोड का
रुसी तुर्किस्तान से हर्जफेल्ड का
तीन ऋण
ऋषि ऋण प्राचीन ज्ञान, विज्ञान व साहित्य के प्रति कर्तव्य
पितृ ऋण पूर्वजों के प्रति कर्तव्य
देव ऋण देवताओं व भौतिक शक्तियों के प्रति दायित्व
भारतीय दर्शन:
न्याय दर्शन –
• इसकी रचना गौतम ऋषि ने की।
• इसके अनुसार समस्त अध्ययन का आधार तर्क है।
• यह संदेह के सिद्धांत की चर्चा करता है।
• इनमे पुनर्जन्म की अवधारणा मान्य है।
• ब्रहा् एवं ईश्वर में विश्वास।
• मोक्ष के लिए ज्ञान आवश्यक।
वैशेषिक दर्शन-
• इसकी रचना कणाद ने की। यह पदार्थों से सम्बंधित है.
सांख्य दर्शन-
• इसकी रचना कपिल ऋषि ने की।
• इसके अनुसार पुरुष एवं प्रकृति ईश्वर से पृथक हैं।
• सत्व, रजस, और तमस तीनों गुनों से प्रकृति का विकास।
• सत्व गुण-अच्छाई और आनंद का स्त्रोत।
• रजस गुण-कर्म तथा दु:ख का स्त्रोत।
• तमस गुण-अज्ञान, आलस्य तथा उदासीनता का स्त्रोत।
• ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं, विश्व यथार्थ नहीं।
• केवल प्रकृति शाश्वत, पुरुष अमर और जीव पुनर्जन्म में बंधे हैं।
• प्राकृत और पुरुष ईश्वर पर आश्रित न होकर स्वतंत्र हैं।
• यथार्थ ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति।
• यथार्थ ज्ञान अनुमान, प्रत्यक्ष और शब्द से होता है।
• यह वैज्ञानिक अनुसंधान का मार्ग था मगर इस वैज्ञानिक दृष्टिकोण को ईश्वर में विशवास और अध्यात्मवाद ने फंसा लिया और इसमें भी स्वर्ग और मोक्ष समा गये।
योग दर्शन-
• इसके प्रवर्तक महर्षि पातंजलि थे।
• इसके अनुसार योग द्वारा मनुष्य जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति पा सकता है। आध्यात्मिक और भौतिक उन्नति के लिए सात उपाय-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान और समाधि।
• ईश्वर ही चिंतन का लक्ष्य और वही हमारी उद्दश्य प्राप्ति में सहायक।
पूर्व मीमांसा-
• इसकी रचना जैमिनी ऋषि ने की।
• वेदों की महत्ता स्वीकार्य।
• देवताओं की उपासना।
• यह केवल कर्मकांड तक सीमित है।
• परम सत्य का हल ढूंढने की चेष्टा नहीं।
उत्तर मीमांसा-
• इसकी रचना बादरायण ऋषि ने की।
• यह चार अध्यायों में विभक्त है और इनमे 555 सूत्र हैं।
• पहले अध्याय में ब्रहा् की प्रकृति और विश्व तथा अन्य जीवों के साथ उनके संबंध बताये गये हैं। दूसरा अध्याय आपत्तियों से संबंधित है।
• तीसरे अध्याय में ब्रहा् विधा की चर्चा है। चौथे अध्याय में ब्रहा् विधा से लाभ तथा मृत्यु के उपरांत आत्मा के भविष्य के संबंध में बताया गया है।
• मूल ग्रंथ ब्रहा् सूत्र है
पाँच आर्य पाँच अनार्य
अनु अनिल
द्र्हूा (परुष्णी नदी के किनारे थे) पक्थ
युद्ध भलानस
पुरु शिव
तुर्वश विषाग्नि
ऋषि और मंडल
गृत्समद् द्वितीय मंडल
विश्वामित्र तृतीय मंडल
वामदेव चतुर्थ मंडल
वशिष्ठ पंचम मंडल
भारद्वाज षष्ठ मंडल
अत्रि सप्तम मंडल
वैदिक सभ्यता :
परिचय-
हड़प्पाकालीन सभ्यता एवं संस्कृति के बाद भारत की घरती पर एक अर्द्धभ्रमणशील एवं पशुचारी प्रवृति के आर्यों का प्रादुभाव हुआ। इन आर्यों की सभ्यता एवं संस्कृति की विस्तृत जानकारी हमें वेदों से प्राप्त होती है। इसलिए इन आर्यों की सभ्यता के काल को वैदिक काल/वैदिक युग भी कहते हैं। वैदिक युग को दो भागों में बाँटा गया है-पहला, ऋग्वैदिक काल जो 1500 ई.पू० से 1000 ई. पू० तक माना जाता है और दूसरा, उत्तर वैदिक काल जो 1000 ई० पू० से 600 ई० पू० तक माना जाता है। इस प्रकार 1500 ई० पू० से 600 ई० पू० का काल वैदिक युग के नाम से जाना जाता है। ‘आर्य’ शब्द का अर्थ श्रेष्ठ, उदात्त, अभिजात्य, कुलीन, उत्कृष्ट एवं स्वतंत्र होता है। ये लोग संस्कृत भाषा का प्रयोग करते थे और अनेक देवी-देवताओं की उपासना करते थे। भारत और यूरोप में आर्यों को आनुवंशिक दृष्टी से एक जाति का माना जाता है और अनेक सांस्कृतिक उपलब्धियों का श्रेय आर्यों को दिया जाता है।
तिथि-
आर्य भारत में लगभग 1500 ई० पू० में आए। हालांकि एक से अधिक बार में आर्यों के कई समूह भारत आए। अत: इनके आगमन का कोई निश्चित काल निर्धारण करना मुश्किल है। वैसे वैदिक सभ्यता का काल 1500-500 ईसा पूर्व माना जाता है।
सोलह संस्कार
जन्म से मृत्यु तक व्यक्ति के 16 महत्वपूर्ण संस्कार
गर्भाधान संतान की प्राप्ति के लिए
पुंसवन पुत्र प्राप्ति के लिए
सिमन्तोन्नयन गर्भ में संतान की रक्षा के लिए
जात कर्म बच्चे के उत्पन्न होने पर किया जाने वाला संस्कार
नामकरण नाम रखा जाने वाला संस्कार
निष्क्रमण पहली बार घर से निकलना
अन्नप्रासन नवजात शिशु को भोजन के रूप में अन्न देने का प्रारम्भ
चूड़ाकर्म मुण्डन संस्कार
कर्णवेधन कान में छेद करना
विद्धारंभ शिक्षा प्रारंभ
उपनयन यज्ञोपवीत धारण
वेदारंभ वेद का अध्ययन प्रारंभ
केशान्त ——–
समावर्तन शिक्षा की समाप्ति पर
विवाह संस्कार विवाह
अन्त्येष्टि दाह-संस्कार
पंच महायज्ञ
यज्ञ उद्देश्य
भूतयज्ञ जीवधारियों का पालन
अतिथि यज्ञ या नृयज्ञ अतिथियों की सेवा
ब्रहा् यज्ञ या ऋषि यज्ञ स्वाध्याय के लिए
देव यज्ञ अग्नि में हवन के द्वारा देवता को प्रसन्न करने के लिए
पितृ यज्ञ पितरों का तर्पण या संतानोत्पत्ति के निमित्त
आर्यों के आगमन से संबंधित विचार-
आर्य मूलत: कहां के रहने वाले थे यह आज भी विविदास्पद विषय है इस संबंध में प्रमुख विद्वानों द्वारा बताये गये क्षेत्र निम्नलिखित हैं-
आर्य आए विचार/मान्यता है
यूरोप से विलियम जोंस का
यूरोप स्थित हंगरी के मैदान से डॅा० पी० गाइल्स का
जर्मनी के आसपास से पंके का
पश्चिमी बाल्टिक समुद्री तट से मच का
दक्षिणी रूस से पोकानों एवं नेहरिंग का
आर्कटिक प्रदेश से बाल गंगाधर तिलक का
मध्य एशिया से प्रो० मैक्समूलर का
आर्य भारतीय थे सम्पूर्णानंद व अविनाश चन्द्र का
ब्रहा्र्षि देश से डॅा० गंगाधर झा का
कश्मीर एवं हिमालय प्रदेश से एल० डी० कल्ला का
तिब्बत से स्वामी दयानंद का
किरगीज स्टेप्स के मैदान से ब्रडस्टीन का
पामीर का पठार से मेयर का
बैक्त्रिया से जे० डी० रोड का
रुसी तुर्किस्तान से हर्जफेल्ड का
तीन ऋण
ऋषि ऋण प्राचीन ज्ञान, विज्ञान व साहित्य के प्रति कर्तव्य
पितृ ऋण पूर्वजों के प्रति कर्तव्य
देव ऋण देवताओं व भौतिक शक्तियों के प्रति दायित्व
भारतीय दर्शन:
न्याय दर्शन –
• इसकी रचना गौतम ऋषि ने की।
• इसके अनुसार समस्त अध्ययन का आधार तर्क है।
• यह संदेह के सिद्धांत की चर्चा करता है।
• इनमे पुनर्जन्म की अवधारणा मान्य है।
• ब्रहा् एवं ईश्वर में विश्वास।
• मोक्ष के लिए ज्ञान आवश्यक।
वैशेषिक दर्शन-
• इसकी रचना कणाद ने की। यह पदार्थों से सम्बंधित है.
सांख्य दर्शन-
• इसकी रचना कपिल ऋषि ने की।
• इसके अनुसार पुरुष एवं प्रकृति ईश्वर से पृथक हैं।
• सत्व, रजस, और तमस तीनों गुनों से प्रकृति का विकास।
• सत्व गुण-अच्छाई और आनंद का स्त्रोत।
• रजस गुण-कर्म तथा दु:ख का स्त्रोत।
• तमस गुण-अज्ञान, आलस्य तथा उदासीनता का स्त्रोत।
• ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं, विश्व यथार्थ नहीं।
• केवल प्रकृति शाश्वत, पुरुष अमर और जीव पुनर्जन्म में बंधे हैं।
• प्राकृत और पुरुष ईश्वर पर आश्रित न होकर स्वतंत्र हैं।
• यथार्थ ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति।
• यथार्थ ज्ञान अनुमान, प्रत्यक्ष और शब्द से होता है।
• यह वैज्ञानिक अनुसंधान का मार्ग था मगर इस वैज्ञानिक दृष्टिकोण को ईश्वर में विशवास और अध्यात्मवाद ने फंसा लिया और इसमें भी स्वर्ग और मोक्ष समा गये।
योग दर्शन-
• इसके प्रवर्तक महर्षि पातंजलि थे।
• इसके अनुसार योग द्वारा मनुष्य जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति पा सकता है। आध्यात्मिक और भौतिक उन्नति के लिए सात उपाय-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान और समाधि।
• ईश्वर ही चिंतन का लक्ष्य और वही हमारी उद्दश्य प्राप्ति में सहायक।
पूर्व मीमांसा-
• इसकी रचना जैमिनी ऋषि ने की।
• वेदों की महत्ता स्वीकार्य।
• देवताओं की उपासना।
• यह केवल कर्मकांड तक सीमित है।
• परम सत्य का हल ढूंढने की चेष्टा नहीं।
उत्तर मीमांसा-
• इसकी रचना बादरायण ऋषि ने की।
• यह चार अध्यायों में विभक्त है और इनमे 555 सूत्र हैं।
• पहले अध्याय में ब्रहा् की प्रकृति और विश्व तथा अन्य जीवों के साथ उनके संबंध बताये गये हैं। दूसरा अध्याय आपत्तियों से संबंधित है।
• तीसरे अध्याय में ब्रहा् विधा की चर्चा है। चौथे अध्याय में ब्रहा् विधा से लाभ तथा मृत्यु के उपरांत आत्मा के भविष्य के संबंध में बताया गया है।
• मूल ग्रंथ ब्रहा् सूत्र है